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पुस्तक भाषा संशय-शोधन’ और ‘शब्द-संधान’ के लेखक कमलेश कुमार कमल के साथ साक्षात्कार

कमलेश की कृतियाँ ‘भाषा संशय-शोधन’ व ‘शब्द-संधान’ हिंदी को वैज्ञानिक दृष्टि से नई दिशा देती हैं और पाठकों में आत्मविश्वास जगाती हैं।
on Sep 19, 2025
पुस्तक भाषा संशय-शोधन’ और ‘शब्द-संधान’ के लेखक कमलेश कुमार कमल के साथ साक्षात्कार

फ्रंटलिस्ट: आपकी दोनों पुस्तकों में शब्दों की व्युत्पत्ति, उनके प्रयोग और अर्थ की गहराई पर विशेष बल दिया गया है। आपके अनुसार, भाषा की यह वैज्ञानिक दृष्टि हिंदी के भविष्य को किस प्रकार दिशा देती है?

कमलेश: भाषा तभी सुदृढ़ होती है, जब उसमें भावनात्मकता के साथ वैज्ञानिकता और तार्किकता भी हो। शब्दों की व्युत्पत्ति और शुद्ध प्रयोग की पड़ताल से भाषा को प्रमाणिकता प्राप्त होती है। इससे शिक्षा व अनुसंधान के लिए आधार निर्मित होता है और भाषा वैश्विक भाषाओं के मध्य समादृत होती है। जब पाठक अनुभव करता है कि हिंदी के शब्दों में वैज्ञानिकता है और जो भाषिक परिवर्तन हैं, वे युक्तियुक्त हैं, तो उसमें आत्मविश्वास और गर्व जागता है। यही आत्मविश्वास हिंदी को भविष्य में ज्ञान, विज्ञान और विचार-विमर्श की भाषा बना सकता है।

फ्रंटलिस्ट: ‘भाषा संशय-शोधन’ में आपने हिंदी के जटिल संदेहों का समाधान किया है और ‘शब्द-संधान’ में उन शब्दों की जड़ों तक पहुँचने का प्रयास किया है। इन दोनों यात्राओं में आपके लिए सबसे चुनौतीपूर्ण अनुभव कौन-सा रहा?

कमलेश: सबसे कठिन कार्य था—  वैज्ञानिक दृष्टि से भाषा की ऐतिहासिक परतों तक पहुँचना और उन्हें वर्तमान प्रयोग से तार्किक रूप में जोड़ना। विभिन्न भाषाओं से आए शब्दों की जड़ों का निर्धारण, विरोधी मतों में से प्रमाणिक निष्कर्ष चुनना और पाठकों की सहजता तथा विद्वत्ता के बीच संतुलन साधना—ये सब गंभीर चुनौतियाँ थीं। कई बार लोकप्रिय व्याख्या और वास्तविक जड़ में भेद स्पष्ट हुआ, तब सत्य को प्राथमिकता देना आत्मानुशासन की परीक्षा थी।

फ्रंटलिस्ट: हिंदी में शब्दकोशों और व्याकरण की सैकड़ों पुस्तकें उपलब्ध हैं, परंतु आपकी रचनाएँ पाठकों को अलग दृष्टि देती हैं। आपके अनुसार, पारंपरिक व्याकरण और आपकी प्रस्तुतियों में मौलिक अंतर क्या है?

कमलेश: मेरी दृष्टि में भाषा जीवनानुभव और संस्कृति की जीवंत अभिव्यक्ति होती है, जो शब्दानुशासन अर्थात् व्याकरण से सँवरती है। मैं केवल यह नहीं बताता कि कौन-सा प्रयोग सही है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता हूँ कि ‘सही-गलत’ की धारणा बनी कैसे। व्युत्पत्ति और कालगत अर्थ-परिवर्तन (अर्थसंकोच, अर्थविस्तार, अर्थादेश, अर्थापकर्ष इत्यादि) को रेखांकित करना इसी समावेशी व्याकरणिक दृष्टि का हिस्सा है। मेरी रचनाएँ पाठक को संवाद का सहभागी बनाती हैं और संदेहों का सहज समाधान भी प्रस्तुत करती हैं।

फ्रंटलिस्ट: आप वर्षों से शब्दों की व्युत्पत्ति और शुद्ध प्रयोग पर कार्य कर रहे हैं। क्या यह कहना उचित होगा कि शब्दों के पीछे की कहानी के परिज्ञान से भाषा के प्रति संवेदनशीलता और प्रेम प्रगाढ़ होता है?

कमलेश: निश्चित ही। शब्दों की जड़ों तक पहुँचना उन्हें निर्जीव चिह्न नहीं रहने देता, बल्कि इतिहास और संस्कृति का वाहक बना देता है। इससे संवेदनशीलता और अपनापन गहराता है। जिस प्रकार किसी प्रियजन की कथा जानने पर स्नेह बढ़ता है, वैसे ही शब्द की यात्रा को समझने पर भाषा के प्रति प्रेम गाढ़ा होता है। यह बोध हमें भाषा को सामूहिक धरोहर मानने और उसके संरक्षण हेतु सचेत करता है। 

फ्रंटलिस्ट: आपने भाषा-विज्ञान को एक रोचक और सरल रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे विद्यार्थी, शिक्षक और मीडिया कर्मी सभी लाभान्वित होते हैं। क्या यह सचेतन प्रयास था कि भाषा केवल ‘नियम’ न रहकर ‘अनुभव’ बन सके?

कमलेश: हाँ, यह प्रयास सचेतन था। मेरा अभिमत है कि भाषा यदि केवल नियमों तक सीमित हो, तो कुछ बोझिल-सी प्रतीत होती है। इसलिए मैंने व्युत्पत्ति, सांस्कृतिक प्रसंग और जीवित उदाहरणों को सम्मिलित किया, ताकि विद्यार्थी को सरलता, शिक्षक को गहराई और पत्रकार को व्यावहारिकता मिल सके। इस प्रकार शुद्धता और सहजता, अनुशासन और आनंद— इत्यादि का सम्यक् संतुलन साधने का प्रयास रहा।

फ्रंटलिस्ट: हिंदी दिवस के अवसर पर, जब हम हिंदी की वर्तमान स्थिति पर विचार करते हैं, तो आपके अनुसार हिंदी के प्रति प्रेम जगाने में व्याकरण और शुद्ध प्रयोग की कितनी भूमिका है?

कमलेश: हिंदी के प्रति प्रेम केवल भावनात्मक आग्रह से नहीं, बल्कि शुद्ध और व्याकरणसम्मत प्रयोग से जन्म लेता है। शुद्धता भाषा में विश्वास जगाती है, अभिव्यक्ति को स्पष्ट बनाती है और उसे गौरव का आधार प्रदान करती है। व्याकरण इस संरचना का प्रहरी है। यही कारण है कि हिंदी की शुद्धता और सटीकता ही उसके प्रति स्थायी प्रेम और आदर की भूमिका रचती है।

फ्रंटलिस्ट: भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कार और चिंतन की संवाहिका भी होती है। आप इससे किस स्तर तक सहमत हैं?

कमलेश: इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि भाषा केवल सूचना का साधन नहीं, अपितु संस्कार और चिंतन की वाहक होती है। वह परंपरा और मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाती है। ‘नमस्ते’ जैसे शब्द केवल अभिवादन नहीं, बल्कि विनम्रता और सम्मान का संस्कार संजोए हैं। रसोई के अर्थ को समझ लें तो उस मिठास का स्थानापन्न किचन जैसे शब्दों से कभी नहीं हो सकता। एक जैसे प्रतीत होनेवाले शब्दों में भी अर्थपरक विभेद होते हैं, जिन्हें जानने का उद्यम करना चाहिए। शब्द परंपरा के रिक्थ होते हैं। हमें यह बोध होना ही चाहिए कि हिंदी की शब्दावली ने हमें जीवन-दर्शन दिया और ‘अहिंसा’, ‘सत्याग्रह’ जैसे शब्दों ने राष्ट्रीय मानस को दिशा दी।

फ्रंटलिस्ट: आपकी दोनों पुस्तकों में शब्दों की व्युत्पत्ति, उनके प्रयोग और अर्थ की गहराई पर विशेष बल दिया गया है। आपके अनुसार, भाषा की यह वैज्ञानिक दृष्टि हिंदी के भविष्य को किस प्रकार दिशा देती है?

कमलेश: हिंदी का भविष्य भावनात्मक आग्रहों पर नहीं, अपितु वैज्ञानिक दृष्टि पर आधारित होना चाहिए। शब्दों का मूल, इतिहास और प्रयोग स्पष्ट होने पर भाषा विश्वसनीय बनती है, शिक्षा व अनुसंधान के लिए उपयुक्त आधार तैयार करती है और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में प्रतिष्ठा अर्जित करती है। यही वैज्ञानिकता हिंदी को साहित्य की भाषा से आगे बढ़ाकर शिक्षा, प्रशासन, तकनीक, रोजगार और वैश्विक संवाद की भाषा बनाएगी।

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